जिंदगी से कोई ऐसा वादा तो नहीं था,
मिलके यूँ बिछड़ने का इरादा तो नहीं था
था सपनो में ही शायद कुछ लाम्हा में इसदर,
थी खुली ये आंख पर वो नज़ारा तो नहीं था!
ज़िन्दगी से फेरली थी इस लिए ये नज़रे,
हो के जुदा यूँ जीने का कोई वादा तो नहीं था.
हो गई थी इस कदर रुसवा हम ही से ज़िन्दगी,
बढ़कर तुझ ही से और कुछ - माँगा तो नहीं था?
नासूर थे ये ज़ख्म् भी लम्हों की आग से,
और गम भी ज़िन्दगी से माँगा तो नहीं था!
बेपरवाह था ये माना, उस वक़्त से भी लेकिन,
नादान था में एय खुदा, दीवाना तो नहीं था!
क्यों हर घडी रोती रही, ये आँख भी कुछ इसतरह?
ज़िन्दगी थी वो मेरी, कोई जनाज़ा तो नहीं था!
- 'सत्य' शिवम्
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